आखिर ऐसे शिक्षक पैदा ही क्यों होते है, जिन्हे कुटिल राजनीति करनी है..!

पंकज कुमार मिश्रा मीडिया पैनलिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार, जौनपुर
उफ्फ ! अनएकेडमी का यह टीचर, ये सब लोग बार बार किसी बेचारे पढ़े लिखे को अब अनपढ़ बेरोजगार कहकर चिढ़ा रहे । यह चला था अनपढ़ नेताओ की बात करके उनकी जमात को चिढ़ाने । सबने एक साथ मेज थपथपाई और फिर क्या था सबसे पहले रोबड़ी देवी ने कहा … हे ! अनएकेडमी के बुड़बक तुमका अभी पता नही की हम अनपढ़ जरूर है पर हमार नौवीं फेल बचवा शिक्षा मंत्री रह चुका है । अतः अब तुमका ए कमेंट खातिर हमरे परिवार का चारा खाए के होई । अब फिर क्या वो बेचारा शिक्षक तो नाम किसी का नही लिया पर हमारे बिग बॉस तेजस्वी और उनके पापा मम्मी को धक्का जरूर लगा । अब सोशल मीडिया पर  उनके फॉलोअर्स और नॉन फॉलोअर्स, सब पिल पड़े  हैं कि हिम्मत कैसे हुई उसकी है ?  बात शिक्षित भारत की करें तो यहां कुंठा से भरा दिलीप मंडल भी रहता है और कट्टरता से भरा कन्हैया कुमार भी , दोनो को शिक्षित कहकर ना सिर्फ देश का अपमान होगा अपितु पूरे शिक्षा के मंदिर का अपमान होगा  । खैर भारत में किसी शिक्षक  ने कहा कि एक  पॉडकास्ट करना है तो सब तैयार हो गए उस पॉडकास्ट में उसने एक सवाल पूछा था कि भारतीय और अमेरिकी यूनिवर्सिटियों में पढ़ाई में क्या अंतर है ।इसका जवाब बहुत विस्तार से दिया जा सकता था । पॉडकास्ट में जिसने जो भी कहा हो लेकिन एक बात कहना चाहता हूं कि  भारत के अब के शिक्षकों और अमेरिका के शिक्षकों में मूलभूत अंतर यह है कि भारत के शिक्षक अपने सनातनी परंपरा और छात्रों से सीखना नहीं चाहते हैं ।  (भले ही वो कितना ही कहते फिरें) उनके मन में देश के व्यवस्था के प्रति न तो कोई सम्मान है और न ही यह भावना कि कल को देश का गौरव सनातन धर्म कुछ आगे बढ़ेगा तो उसका समर्थन करना है ।  युवा छात्र उनसे बेहतर काम कर लेगा ।  छात्र उनको तब तक ही अच्छे लगते हैं जब तक गुरू जी गुरू जी करते रहें ।इसके उलट अमेरिका के अधिकतर प्रोफेसर ग्रैजुएशन के बच्चों को भी गंभीरता से लेते हैं । पीएचडी के छात्रों को तो वो अपनी बराबरी का मानते हैं और उनसे अपने प्रोजेक्ट पर फीडबैक तक लेते हैं । प्रोफेसर की किताबों में अक्सर आपको उन छात्रों का नाम आभार में मिलेगा जो उनके छात्र रहे हैं । एडवर्ड सईद की किताबों के आभार में देखेंगे तो उनके कई पीएचडी छात्रों का नाम है जो आगे चलकर खुद बहुत अच्छे प्रोफेसर बने हैैं । अमेरिका के अधिकतर गंभीर प्रोफेसर आपको फेसबुक ट्विटर पर नहीं मिलेंगे । अगर मिलेंगे तो भी अक्सर सिर्फ अपने लेख या किताबों की जानकारी शेयर करते हुए मिलेंगे ।  ज्ञान देने के मामले में वो क्लासरूम की पढ़ाई पर ज्यादा यकीन रखते हैं ।
अच्छे प्रोफेसर अमूमन तीन से पांच साल में एक किताब प्रकाशित करवाते हैं या कम से कम तीन लेख ।यह स्थायी प्रोफेसरों का सामान्य आउटपुट है। जो प्रोफेसर पांच साल में किताब नहीं ला रहा है उसके बारे में यूनिवर्सिटी की राय बहुत अच्छी नहीं होती है । ऐसे प्रोफेसर अमूमन वो होते हैं जो एडमिनिस्ट्रेशन में चले जाते हैं और उनसे फिर गंभीर रिसर्च की उम्मीद नहीं की जाती । मैं जो कह रहा हूं वो सारे भारतीय प्रोफेसरों पर निश्चित ही लागू नहीं होता है पर दिलीप मंडल जैसे कई लोग होंगे जो ना देश की ना शिक्षा की और ना छात्रों की इज्जत करते है   लेकिन मेरा अपना अनुभव यही रहा है कि भारतीय प्रोफेसर छात्रों को ज्ञान लेने के लिए सिर झुकाए भिक्षु की तरह ही देखते हैं और सार्वजनिक रूप से उनके ज्ञान पर कोई सवाल कर दो तो बुरा मान जाते हैं । वो खुद को देश  का मित्र कम और  बाप अधिक समझते हैं……यह कष्टकारी है । यह एक कारण हो सकता है कि नए विचार आने में दिक्कत होती है । क्या फायदा इस एंटायर पॉलिटिकल साइंस की डिग्री का जो अपने हो लोगो को नही समझा पाए कि बिग बॉस पोस्ट ग्रेजुएट हैं। गैरो को छोड़ो,  अपनों को भी साहब की डिग्री पर भरोसा नहीं, लगता है। आईटी सेल वाले कहीं से भी अनपढ़ शब्द सुन लेते हैं तो तत्काल सक्रिय हो जाते हैं। बहुत से नेता को अनपढ़ शब्द का पर्यायवाची बना कर रख दिया है।  शायद अनएकेडमी वाले मास्टर साहब की तपस्या के ही कुछ कमी रह गई थी जो वे अपने संस्था  को अपने ठीक से पढ़े लिखे होने का यकीन नही दिला पाए। कोई भी ऐरा गेरा मानसिक अनपढ़  ऐसा  बयान देता है तो उसे ऐसे ही बेइज्जत करके निकाल देना ही ठीक है  और मीडिया  के समर्थक उसको ट्रॉल करके उसके बयान को वायरल कर देते है और फिर सब मजे लेते है, मीम बनते है। अगर समर्थक शांत  रहें तो बात आई गई हो जाए। पिछली बार भी काजोल को स्पष्टीकरण देना पड़ा था। इस बार टीचर की नौकरी चली गई। मीडिया की लाठी जब पड़ती है तो आवाज नहीं होती। अब आप कभी गलती से भी किसी से ऐसा मत कहिए कि अनपढ़ को वोट मत देना। लालू और बिहार  सब देख रहा हैं।

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