भारत की गिरती शिक्षा व्यवस्था में शिक्षकों की विशेष भूमिका ..!

पंकज कुमार मिश्रा मीडिया कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर 
भारत में शिक्षा व्यवस्था  केवल व्यवसाय बन कर रहा गया है । एक लाख वेतन पाने वाला शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के बजाय अन्य गैर शैक्षणिक गतिविधियों में लिप्त मिलता है । कही शिक्षक राजनीति करते मिल जायेंगे तो कही धरना करते । कुछ जगह तो शिक्षक केवल बैठ कर वेतन लाभ ले रहे । बड़े बड़े विश्वविद्यालयों और कॉलेज में तो शिक्षक केवल फैकल्टी का शोभा बना हुआ है । प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक ऐसे शिक्षक भारत के शिक्षा व्यवस्था के लिए सिरदर्द बने हुए है । भारी वेतन के बाद भी ओपीएस को लेकर आक्रामक है और सरकार को वोट न देने की  धमकी दे रहे है । उधर भारत के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान आईआईटी बॉम्बे ने एक खास उपलब्धि हासिल की है। दुनिया भर की शैक्षिक संस्थाओं के लिए की जाने वाली क्वाक्वारेली साइमंड्स (क्यूएस) वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में आईआईटी बॉम्बे को 150 शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में 149 वां स्थान हासिल हुआ है। भले हम पीछे से दूसरे स्थान पर आए हैं, लेकिन फिलहाल इसी में खुश हुआ जा सकता है कि भारत के किसी संस्थान को क्यू एस रैंकिंग में स्थान मिला है। वैश्विक उच्च शिक्षा में क्यू एस रैंकिंग को खास महत्व दिया जाता है, क्योंकि इस रैंकिंग से संस्थाओं की गुणवत्ता का अनुमान लगाकर छात्र और अभिभावक पढ़ाई के लिए इनका चयन करते हैं और बड़ी-बड़ी कंपनियां नियुक्तियों के लिए इन संस्थाओं का चयन करती हैं।
आईआईटी बॉम्बे ने वैश्विक स्तर पर 149वीं रैंक हासिल करने के लिए 23 स्थान की बड़ी छलांग लगाई है। इससे आठ साल पहले भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर ने 2016 में 147वीं रैंकिंग के साथ यह उपलब्धि हासिल की थी। क्यूएस के शीर्ष 500 की रैंकिंग में इस साल पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्ना विश्वविद्यालय ने भी जगह बनाई है। लेकिन भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर 155वें रैंक से 70 स्थान गिरकर 225वें स्थान पर आ गया है। आईआईटी दिल्ली 174 से गिरकर 197 वें स्थान पर आ गया है। भारत के लिए खुश होने वाली बात ये है कि भारत के 45 विश्वविद्यालयों को इस रैंकिंग में शामिल किया गया, जो दुनिया में सातवां सबसे अधिक प्रतिनिधित्व है। भारत के अलावा एशिया से जापान के 52 और चीन के 71 विश्वविद्यालय रैंकिंग में लिए गए हैं। अमेरिका का मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) लगातार बारहवीं बार विश्व विश्वविद्यालय रैंकिंग में शीर्ष पर है,  इसके बाद यूके की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर (एनयूएस) पिछले साल मिले 11वें स्थान से तीन स्थान ऊपर चढ़कर शीर्ष 10 क्लब में शामिल होने वाला पहला एशियाई विश्वविद्यालय बन गया है।
भारत का कोई भी विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा संस्थान इनके आसपास भी नज़र नहीं आ रहा है। यानी विश्व गुरु होने या बनने का दावा इस एक रैंकिंग से ही खारिज हो जाता है। मगर फिर भी संतोषीजीव की तरह मोदी सरकार जो कुछ है, उसी में खुश होने या अपनी तारीफ़ करने के मौके तलाश रही है। भारतीय शिक्षा अब न केवल अच्छी है, बल्कि यह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ में से एक है।कई विश्वविद्यालय, शोध संस्थान, मुक्त विश्वविद्यालय, कृषि, दुग्ध, वस्त्र उद्योगों को बेहतर बनाने के लिए इनके लिए समर्पित संस्थान  सरकारों ने स्थापित किए। देश के लोग चाहते थे कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी नए भारत के आधुनिकीकरण और इसकी बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने में एक प्रमुख भूमिका निभाए और इसी सोच के अनुरूप उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने और परवर्ती सरकारों ने काम किए। यानी आज देश में उच्च शिक्षा में जो उपलब्धियां हासिल हो रही हैं, उसमें मोदीजी को श्रेय देने से पहले ये देख लेना उचित होगा कि इन उपलब्धियों का रास्ता कहां से तैयार हुआ।
राजीव चंद्रशेखर का यह बयान भी सही नहीं है कि अब कम भारतीयों को शिक्षा के लिए विदेश यात्रा करनी पड़ेगी। क्योंकि भारत सरकार की ‘इंडियन स्टूडेंट्स मोबिलिटी रिपोर्ट 2018’ के अनुसार, विदेश में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या साल 2000 में 66,000 से बढ़कर 2022 में 770,000 से अधिक हो गई।  पढ़ाई के लिए बाहर जाने वाले छात्रों की संख्या में दो दशकों में यह बड़ा उछाल इस कड़वी सच्चाई को दिखाता है कि मौका मिलने पर छात्र बाहर पढ़ने जाने का विकल्प ही चुन रहे हैं। क्योंकि देश में उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान उंगलियों पर गिने जाने लायक हैं और उनमें भी प्रवेश के लिए भयानक मारामारी मची हुई है। ए आई ट्रिपल ई, नीट और अब सीयूईटी जैसी परीक्षाओं में लाखों बच्चे बैठते हैं, जिनमें कुछ हजार को ही प्रवेश नसीब हो पाता है, क्योंकि संस्थाओं में सीटों की संख्या सीमित रहती है और अच्छी गुणवत्ता के सरकारी संस्थान कम खुल रहे हैं।
देश में पढ़ने के बेहतर मौके न मिल पाने के कारण ही बच्चे बाहर का रुख करने पर मजबूर होते हैं। और कई बच्चे आर्थिक कठिनाइयों के कारण न बाहर जा पाते हैं, न देश में आगे पढ़ पाते हैं, तो वे अपना जीवन या तो कुंठा में गुजारते हैं या तनाव में आकर अपनी जान दे देते हैं। अभी जब आईआईटी बॉम्बे की इस उपलब्धि की खबर आई, तभी कोटा में मेडिकल परीक्षा की तैयारी करने वाले दो छात्रों की आत्महत्या की ख़बर भी सामने आई है। हर साल कई बच्चे पढ़ाई के तनाव में इसी तरह अपनी जान दे रहे हैं, तो यह भी विचारणीय है कि आखिर हम किस तरह की उच्च शिक्षा का माहौल बना रहे हैं और कैसे संस्थान बना रहे हैं।

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