
पंकज कुमार मिश्रा, प्रभारी संपादक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी
दिवाली आते ही सबको प्रदूषण की चिंता सताने लगती है। प्रदूषण मापक इंडेक्स लगातार चिल्ला चिल्ला कर कहता है कि मै औकात से ऊपर हो रहा। इतना ही नहीं दिलवालों कि दिल्ली का हाल तो सबसे बुरा और उसपर हरियाणा और पंजाब की पराली ने जीना दुभर कर दिया तो समझिए आप ने जिंदगी जी ही लिया। अब ऐसे में होली दिवाली और मनाली की बात हो और प्रदूषण पर चर्चा ना हो ऐसा हो सकता है क्या ! छोटे राज्यों में छोटी लाइन की छुक छुक रेलगाड़ी से दोपहर को रवाना होते और धुंधलका होते होते गंतव्य तक पहुंच जाते लोग रास्ते में रेलवे लाइन के दोनों तरफ धान के खेतों में बची फसल के ठूंठ ( पराली या पुआल ) जलते देख विडिओ बनाते है । जले खेतों को देखकर ऐसा लगता जैसे कोई चित्रकार डूबते सूरज की नारंगी रोशनी के बीच काजल की लकीर खींच गया हो।हरिनाथ मौसी का घर स्टेशन के पास ही था सो अम्मा तो समान के साथ रिक्शे से आतीं लेकिन हम पैदल ही घर को चल देते। रास्ते में रेलवे क्वार्टर पड़ते और उनके बाहर कोयले की अंगीठियां सुलगती दिखाई पड़ती जो रात का खाना तैयार करने के लिए जलाई जा रही होती। अंगूठियों से उठता धुंआ घरों की छत की ऊंचाई पर जा कर ठहर जाता जिससे कुछ कुछ कोहरे जैसा अहसास होता। तब तक हमने न तो फॉग का नाम सुना था और न ही स्मॉग का। शाम की खुनकी, हवा में कोयले की गंध, हाथ भर की ऊंचाई पर अटका धुआं और अंगीठी से उठती मंद मंद आंच यह अहसास कराती की जाड़ा बस आने ही वाला है।
पहले घरों में एसी कूलर होना तो कल्पना से भी परे बात थी लेकिन जो पंखे थे वोह भी मौसम में बदलाव को देखते हुए धीमे कर दिए जाते। गर्मियों में रात को खुले में सोने वाले अब बरामदों में अपनी चारपाइयां खिसका लेते। बड़े बुजुर्ग अपनी मिरजई और टोपी बक्से से निकाल कर धूप दिखा लेते। शाम जल्दी ढाल जाती तो रात भी जल्दी हो जाती और नौ बजते बजते लोग बिस्तरों में दुबकने लगते। रात को अब कुल्फी वालों की जगह मूंगफली और रेवड़ी वाले आवाज लगाते। वोह अपने सर पर थाल रखते जिसमें समान के बीच एक तेल की कुप्पी जलती होती। अंधेरे में चलते तो ऐसा लगता जैसे कोई भूत आ रहा हो। दिन में हम सिंघाड़े, शरीफा, खील, नए गुड़ का मजा लेते। सुबहें अब थोड़ा देर से होतीं। सुबह टहलने निकलो तो खुले में लगे पौधों पर ओस चमकती दिखती और शाम को जो धुआं हमारे सिरों की ऊंचाई पर अटका दिखता वोह सुबह तक इस ओस में घुल चुका होता जिससे सूरज फिर चटखीला दिखता। समय बदला तो मौसम भी बदला। सन 2000 तक जिस ग्लोबल वार्मिंग को हम सिर्फ किताबों में पढ़ रहे थे अब वोह हमारे सामने हैं। अब दशहरे में कोई गुलाबी जाड़ा नहीं पड़ता। दिवाली तक तो एसी चलते रहते हैं। हाफ स्वेटर तो दूर अभी हाफ टी शर्ट से ही छुटकारा नहीं मिल पाया है। हवा की ऊपरी सतह अभी इतनी गर्म है कि जल वाष्प ठंडी ही नहीं हो पा रही है जिससे ओस भी नहीं पड़ रही नतीजा यह कि धुआं ओस के साथ घुल कर वापस जमीन पर नहीं गिर रहा। खेतों में पराली तो किसान हमेशा से ही जलाते आए हैं। आज के मुकाबले पहले हर रसोई में लकड़ी और कोयला जलता था। दशहरे पर ही ईंट भट्ठे शुरू होते और भाड़ लगते। धुआं छोड़ती रेलगाड़ियां, शुगर मिलों की चिमनियां और दूसरे कारखानों में भी कोयला और लकड़ी का इस्तेमाल होता। फिर भी कहीं स्मॉग का नामो निशान नहीं था तो अब क्यों हर दिवाली से पहले हमारे शहर गैस चैंबर बन जाते हैं ?वजह सिर्फ एक है कि अब मैदानी इलाकों में बारिश कम होने लगी है और ठंड देर से पड़ती है। जिस वजह से ओस नहीं बनती और वातावरण में धुआं बना रहता है। पराली और पटाखों को मुजरिम ठहराना बंद कीजिए। असल दोष ग्लोबल वार्मिंग का है जो हमारी हरकतों की वजह से बढ़ती जा रही है। कंक्रीट से होता अंधाधुंध विकास, पेड़ काट कर बने चौड़े हाईवे, लाखों गाड़ियों, करोड़ों एयर कंडीशनर मौसम को निगल चुके हैं। इसकी आदत डाल लीजिए क्योंकि देश में अब बस स्मॉग ही चलेग और वो ऐड की देश में फॉग चल रहा।