
पंकज कुमार मिश्रा, जौनपुर यूपी
सत्तर साल पहले देश में गरीबी कि हालत कुछ और थी और उस समय दलित बेहद गरीब हुआ करते थे जिस कारण उस वक्त जो नियम बनें, वे हालातों के हिसाब से सही थे मगर वक्त के हिसाब से हालात भी बदलते हैं। अब आरक्षण भी आर्थिक रूप से देने की ज़रूरत है, जातिगत रूप से नहीं तभी राहुल गाँधी, तेजश्वी यादव जैसो की गन्दी जातिवादी राजनीति पर लगाम लग पायेगा । आरक्षण का नव मूल्यांकन करने से इस देश की हर जाति और हर युवा का विकास होगा। अगर सरकार देश की हर जाति और हर युवा को विकास के लिए एक ही पैमाने में देखेगी तभी देश का वास्तविक विकास हो पाएगा और जातिवाद जैसी चीज़ों का खात्मा हो पाएगा। 1990 से ओबीसी को 27% आरक्षण मिलने लगा जो उस समय सही था और अब ओबीसी का बड़ा तबका गरीबी के दायरे से बाहर है फिर इस व्यवस्था को क्यों रिव्यू नहीं किया जा सकता। हालांकि साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ओबीसी को आरक्षण मिलता तो सही है लेकिन क्रीमी लेयर के साथ मिलना चाहिए,मतलब जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं उनको आरक्षण न मिले, यह मुद्दा शायद बड़े लोगों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है मगर यह दुनिया तो अमीरों से ज़्यादा गरीबों से भरी हुई है, इसलिए यह मुद्दा उठाना चाहिए। एक वक्त था जब हमारे देश में दलितों की हालत बहुत ही दयनीय होती थी। उन्हें हर मौलिक अधिकारों और सुविधाओं से वंचित रखा जाता था। उनका पूर्ण रूप से शोषण भी किया जाता था। वहीं, दूसरी ओर ऊंची जाति के लोगों का वर्चस्व काफी अधिक था। दलितों की यह स्थिति देख बाबा साहेब अंबेडकर ने उनके लिए आरक्षण का कानून बनाया जिससे उन्हें आर्थिक और सामाजिक विकास में मदद मिली। यह कानून उस वक्त उचित भी था मगर आज स्थिति कुछ और है। आज कोई भी जातिगत रूप से नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से गरीब और अमीर है।
साल 1993 में एक लाख से ऊपर सालाना आमदनी वाले क्रीमी लेयर में माने गए। अभी आठ लाख से ऊपर सालाना आमदनी वाले ओबीसी भी आरक्षण लें लेता है। आर्थिक रूप से कमजोर तबके या इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन (ईडब्ल्यूएस) के तहत वे परिवार आते हैं, जिनकी कुल पारिवारिक आय एक साल में 8 लाख रुपये से कम हो। संसद के दोनों सदनों द्वारा इस 103वें संवैधानिक संशोधन को पास करने के बाद जनवरी 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस पर मुहर लगाकर इसे कानून बना दिया। देश में अंग्रेजों के राज से ही आरक्षण व्यवस्था की शुरुआत हुई थी। साल 1950 में एससी के लिए 15%, एसटी के लिए 7.5% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। पहले केंद्र सरकार ने शिक्षा, नौकरी में आरक्षण लागू किया था। केंद्र के बाद राज्यों में भी आरक्षण लागू कर दिया। राज्यों में जनसंख्या के हिसाब से एससी, एसटी को आरक्षण का लाभ है। आरक्षण लागू करते वक्त 10 साल में समीक्षा की बात कही गई थी. साल 1979 में मंडल आयोग का गठन किया गया। ये आयोग सामाजिक, शैक्षणिक रुप से पिछड़ों की पहचान के लिए बना था। साल 1980 में मंडल आयोग ने पिछड़ों को 27% आरक्षण की सिफारिश की। इसके बाद साल 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश लागू कर दीसंविधान के अनुच्छेद 46 के मुताबिक, समाज में शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का ध्यान आया। खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को अन्याय और शोषण से बचाया जाए। अगर आर्थिक रूप से कमजोर दलितों सवर्णो और ओबीसी को समान आरक्षण मिलता तो देवरिया जिले के रुद्रपुर की घटना के सम्बंध में देवरिया तथा पूरे देश में जो भी जाना-सुना है, ऐसी उस वक्त जो नियम बनें, वे हालातों के हिसाब से सही थे मगर वक्त के हिसाब से हालात भी बदलते हैं। अब आरक्षण भी आर्थिक रूप से देने की ज़रूरत है, जातिगत रूप से नहीं। ऐसा करने से इस देश की हर जाति और हर युवा का विकास होगा।अगर सरकार देश की हर जाति और हर युवा को विकास के लिए एक ही पैमाने में देखेगी तभी देश का वास्तविक विकास हो पाएगा और जातिवाद जैसी चीज़ों का खात्मा हो पाएगाघटनाये जातिगत रूप ना लेती। इससे मन बेहद ही मर्माहत हैं। यह मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है जो हालांकि भूमि विवाद को लेकर हुई। हम सभी की यह जिम्मेदारी है कि, इस घटना को जातीय रंग न दिया जाए और सरकार और कानून को अपना काम करने का मौका दिया जाए। सौहार्दपूर्ण माहौल तथा समाज में भाईचारा बना रहे इसको लेकर प्रयास हमें मिलकर करना है, ताकि समाजिक सहिष्णुता के लिए जाने जाना वाला अपना परिवेश विद्वेष का शिकार न हो तथा किसी भी प्रकार का आपसी वैमनस्य न प्रसारित हो। देवरिया में हुई एक व्यक्ति की हत्या और बदले में हुई दूसरे परिवार की सामूहिक हत्याएं हर नागरिक को परेशान कर के रख दिया है जमीन के एक टुकड़े ने दो परिवारों को खत्म कर दिया मृतकों में दोनों पक्ष के वे लोग है जो कंहीं से प्रोफेशनल अपराधी नहीं थे एक पक्ष का मृतक व्यक्ति लोकल स्तर का नेता तो दूसरे पक्ष के लोग गरीब और सीधे साधे थे इसलिए लोगों में आक्रोश ज्यादा है आक्रोशित लोगों में वे लोग भी है जो इस हत्याकांड से मर्माहत और व्यथित है पर वे भी हैं जो इस घटना को जातीय रूप देकर अपनी जाति का नेता बनना चाहते हैं।अतः इस घटना को राजनीतिक रंग देना एक अत्यंत घिनौनी हरकत है नेता और तथाकथित उत्तेजना में बयान देने वाले लोग तो धीरे धीरे इस घटना को भूल जाएंगे और अपने अपने कामों में लग जाएंगे पर पीड़ित परिवारों को तो अपनी बाकी जिंदगी अपना बोझ खुद उठाना होगा अतः अच्छा होगा कि उत्तेजनात्मक बयान बन्द हों।न्यायपालिका को अपना काम करने दे और समाज को नई व्यवस्था की तरफ जाने दें।