जानवरों की बलि देना धर्म का जरूरी हिस्सा या नहीं? पाबंदी लगाने की उठी मांग

जानवरों की बलि देना हमेशा से विवादों में रहा है. इसी से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा कि यह ‘वास्तव में विवादास्पद’ है कि पौराणिक पात्र शाकाहारी थे या मांसाहारी. कलकत्ता उच्च न्यायालय की बेंच ने सोमवार को दक्षिण दिनाजपुर के एक मंदिर में सामूहिक पशु बलि पर पाबंदी लगाने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की. साथ ही बेंच ने इस याचिका को चीफ जस्टिस टीएस शिवगनम की बेंच को भेज दिया, जो इसी तरह की कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

बकरियों-भैंसों की दी जाती है बलि:

वकील ने अदालत को दक्षिण दिनाजपुर मंदिर के बारे में आगे बताते हुए कहा कि यहां रास पूर्णिमा उत्सव के बाद हर शुक्रवार को 10,000 से ज्यादा पशुओं. मुख्य रूप से बकरियों और भैंसों की बलि दी जाती है. जस्टिस बसु ने कहा, ‘आपको धारा 28 (पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960) की वैधता को चुनौती देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि बलि की प्रथा काली पूजा या किसी अन्य पूजा की अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है, जहां तक भारत के पूर्वी भाग के नागरिक इसका पालन करते हैं, खान-पान की आदतें अलग-अलग होती हैं.’

कब शुरू हुई थी यह प्रथा?

वकील ने आगे कहा, ‘यह ब्रिटिश काल में शुरू हुआ था, अंग्रेजों ने एक ज़मींदार को गिरफ्तार किया था. उसने देवी काली की पूजा की और शुक्रवार को रिहा कर दिया गया. उसके बाद से यह प्रथा शुरू हो गई.’ वकील ने आगे कहा कि ‘बलि प्रतीकात्मक रूप से दी जा सकती है’ वकील ने जोर देकर कहा कि यह प्रथा “आवश्यक धार्मिक प्रथा” के अंतर्गत नहीं आती है. जस्टिस बसु ने पूछा,’क्या आप यह सुझाव दे रहे हैं कि यह धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है?’ वकील ने भी जवाब में पूछा कि क्या यह ‘आवश्यक’ धार्मिक प्रथा का हिस्सा है?

‘इसमें कोई सार्वजनिक हित नहीं’

राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले महाधिवक्ता किशोर दत्ता ने सवाल किया कि क्या किसी विशेष मंदिर में पशु बलि को रोकने की मांग करने वाले आवेदन को जनहित याचिका के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि इसमें कोई ‘सार्वजनिक हित’ शामिल नहीं है. दत्ता ने बताया कि इसी तरह के सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने भी आए थे, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर आपको जानवरों की बलि पर पाबंदी लगाने की आवश्यकता है तो इस संबंध में कानून लाना होगा.

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