पहली नजर में केस नहीं बन रहा है तो आरोपी को अग्रिम जमानत दी जा सकती है। देश की सर्वोच्च अदालत ने ये टिप्पणी क्यों की? क्यों कहा कि संविधान ने दलितों को सुरक्षा की जो गारंटी दी गई है वो कमजोर पड़ सकती है। 2018 के वो दृश्य क्यों याद दिलाए गए जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देशभर में दलित संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया था, वो हिंसक भी हो गया था। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला बाद में सरकार के द्वारा पलटा भी गया था। एससी/एसटी एक्ट देश का वो कानून जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उचित स्थान, सम्मान और न्याय देना तय करता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा था कि इस कानून की धारा 18 अग्रिम जमानत पर पूरी तरह से रोक लगा दें। यानी किसी व्यक्ति पर इस कानून की इस धारा के तहत आरोप होने पर वो जमानत नहीं ले सकता। कानून की भाषा में इसे एंटी सिप्टेरी बेल कहते हैं यानी वो जमानत जो अरेस्ट से पहले ली जाती है।
1 सितंबर, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के तहत अग्रिम ज़मानत पूरी तरह से वर्जित है। इसका अर्थ है कि इस कानून के तहत अपराधों का आरोपी व्यक्ति आमतौर पर सीआरपीसी की धारा 438 के तहत गिरफ्तारी-पूर्व ज़मानत नहीं मांग सकता। हालाँकि, न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण अपवाद जोड़ा यदि प्राथमिकी से ही पता चलता है कि प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है, और आरोप निराधार हैं, तब भी न्यायालय अग्रिम ज़मानत देने के लिए अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है। चीफ जस्टिस बीआर गवई की बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द किया जिसमें एक आरोपी को जमानत दी गई थी।
न्यायालय ने अग्रिम ज़मानत पर रोक क्यों लगाई?
आरोपों में भारतीय न्याय संहिता, 2023 के कई प्रावधानों के साथ-साथ एससी/एसटी अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(o), 3(1)(r), 3(1)(s), और 3(1)(w)(i) भी शामिल थे। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने ज़ोर देकर कहा कि संसद ने जानबूझकर कमज़ोर एससी/एसटी समुदायों की रक्षा के लिए यह रोक लगाई है। इस विधायी उद्देश्य का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि जाति-आधारित अत्याचारों के पीड़ितों को डराया या परेशान न किया जाए।
हाई कोर्ट का आदेश रद्द
बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए, न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि जहाँ प्राथमिकी में ही जाति-आधारित अत्याचार के अपराधों का खुलासा होता है, वहाँ अग्रिम ज़मानत उपलब्ध नहीं है। एकमात्र अपवाद वह है जहाँ प्राथमिकी, पहली नज़र में, अधिनियम के तहत मामला नहीं बनाती है। न्यायाधीशों ने ज़ोर देकर कहा कि प्रथम दृष्टया मामला न बनने का संकेत प्राथमिकी से ही स्पष्ट होना चाहिए। अदालतें आरोपों को पहली बार पढ़ते ही या उनके “प्रथम दृष्टया” आकलन के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँच सकती हैं। हालाँकि, ऐसा करते हुए, पीठ ने चेतावनी दी कि अदालतें अग्रिम ज़मानत के चरण में साक्ष्यों का विस्तृत मूल्यांकन, लघु सुनवाई या गवाहों के बयानों का मूल्यांकन नहीं कर सकती हैं।
क्या है मामला?
मामले में प्रतिवादी आरोपी और अन्य पर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में एक विशेष उम्मीदवार को वोट न देने के लिए अपीलकर्ता-शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों पर हमला करने और जातिवादी गालियां देने का आरोप लगाया गया था। प्राथमिकी की विषय-वस्तु के आधार पर अदालत ने कहा कि इस निष्कर्ष से कोई बच नहीं सकता कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध बनता है।