दिवाली के बोनस में प्रदूषण और पटाखो का शोर…!

दिवाली आते ही प्रदूषण बोर्ड जाग जाता है, जज साहब की नीद खुल जाती है और सामाजिक कार्यकर्ताओं की नजर दिल्ली और एनसीआर की तरफ घूम जाती है। मुझे आज तक समझ नहीं आया की पूरे साल शुरू से आखिरी तक प्रदूषण मिटाने की बात क्यों नहीं होती ! शादी विवाह के समारोह में आसमान जब धुए के गुबार से भर जाता है तब क्यों जज साहब की आँखे नहीं खुलती और स्वतः संज्ञान नहीं लेते ! शीर्ष अदालत ने सिर्फ नीरी (नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा हिन्दू त्योहार दिपावली पर  प्रमाणित ग्रीन पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल की अनुमति दे तो दी है। जो केवल 18 से 21 अक्टूबर तक के लिए दी गई है। दीपावली से पहले सुप्रीम कोर्ट ने हरित पटाखों की बिक्री और उपयोग की जो इजाज़त दी है, वो विवाद  एक और उदाहरण है। सुप्रीम कोर्ट को कम नुकसानदायक पटाखों को जलाने की मंजूरी इसलिए देनी पड़ी क्योंकि दीपावली अब रोशनी, रंगों और मिठास से ज्यादा हिन्दुत्व का त्योहार बन चुका है।
अदालत ने साफ किया कि इस अवधि के बाद किसी भी प्रकार के पटाखों की बिक्री या इस्तेमाल पर प्रतिबंध जारी रहेगा। अगर कोई विक्रेता या निर्माता इस आदेश का उल्लंघन करता पाया गया, तो उसके खिलाफ सख़्त कानूनी कार्रवाई की जायेगी। ठंड की हल्की दस्तक के साथ ही दीपोत्सव का पर्व आता है और साथ लाता है प्रदूषण आया – प्रदूषण आया का शोर…! सामाजिक कार्यकर्ताओं का अनचाहा आगमन भी हो चुका होता  है। साल दर साल बीतते जा रहे हैं और प्रदूषण की समस्या से निजात ही नहीं मिल रही है, क्योंकि इसकी जड़ों तक जाने की कोशिश ही नहीं हो रही है। केवल दीपावली  पर नियम बनाकर प्रदूषण जैसी गंभीर और जटिल समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। लोगो को  वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर काम करना है, तमाम सुविधा-संपन्न घरों में रहना है, छुट्टियों पर प्रदूषण रहित पर्यटक स्थलों पर वे जाते हैं और अगर बीमार पड़ें तो फ्लाइट पकड़ महंगे अस्पतालों में महंगा इलाज उनके लिए उपलब्ध है। लेकिन आम आदमी प्रदूषण की मार बारह महीने झेलता है, फिर भी समझ नहीं पाता कि उसे खुश करके आखिर में उसे ही धीरे-धीरे मारने का इंतजाम किया जा रहा है। आज यदि मोदी जी लोगों से अपील कर दें  कि वे पटाखे न जलायें, देशी दीपक जलाकर, रंगोली सजाकर दीवाली मना लें, तो लोग  खुशी-खुशी इस बात को मानेंगे।
वैसे आपको बता दें कि सामान्य पटाखों में बैरियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्युमिनियम और पोटेशियम नाइट्रेट जैसे रसायन होते हैं जो जलने पर जहरीली गैसें छोड़ते हैं। ग्रीन पटाखों में इन्हीं रसायनों की मात्रा कम रखी जाती है या कुछ जगह उनके स्थान पर कम हानिकारक यौगिकों का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें भारत सरकार की वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान सीएसआईआर (वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद) और नीरी (राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान) ने विकसित किया है, ताकि पारंपरिक पटाखों से 30 प्रतिशत तक कम प्रदूषण हो। ग्रीन पटाखों का लेबल लगाकर पारंपरिक पटाखे ही बेचे जाते हैं। क्योंकि लागत में ये सस्ते पड़ते हैं। विशेष निगरानी दल बनाने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि दीपावली में इस बात की जांच बेहद मुश्किल होगी कि वास्तव में कौन से पटाखे ग्रीन हैं और कौन से नहीं।
बल्कि इस जांच के नाम पर अवैध कमाई का एक और रास्ता खुल जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। साल 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने पारंपरिक पटाखों पर रोक लगाकर केवल ग्रीन पटाखों को अनुमति दी थी। तभी से बाज़ार में इस किस्म के पटाखे बिक रहे हैं। लेकिन बताया जाता है कि ग्रीन पटाखों के नाम पर सामान्य पटाखों की बिक्री ही धड़ल्ले से होती है।यानी प्रदूषण हर सूरत में होना ही है, भले उसका प्रतिशत कुछ कम हो जाए। अगर सामान्य गाड़ियों और एसी का इस्तेमाल क़म कर दिया जाय तो फिर थोड़ी उम्मीद भी बंधती है जिससे लगभग  30 प्रतिशत तक प्रदूषण नियंत्रण किया जा सकता है । यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि जहरीली गैसें भले ग्रीन पटाखों से कम निकलें, लेकिन शोर तो उतना ही रहेगा। ग्रीन पटाखों का शोर 110 से 125 डेसिबल तक दर्ज किया गया है जबकि कानूनी सीमा 90 डेसिबल है। बच्चों और बुजुर्गों के लिए इसका शोर भी उतना ही हानिकारक है जितना पुराने पटाखों का था।
पंकज सीबी मिश्रा/राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी 

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