आजकल बौद्ध कथावाचक अपनी कथा के माध्यम से तरह – तरह के उलूल जुलूल उदाहरण देकर, मतान्ध समाज को बरगलाने पर आमादा है। वो अपनी बात समझाने के लिए तुलसीदास बाबा के ही चौपाईयों का सहारा लें रहें और कुछ तो जाति और ज्ञान से पैदाइस क्षुद्र है जो बिना सनातन या ब्राह्मण को कोसे अपना ही प्रवचन नहीं कर सकते ? यह तुलसी की लोकप्रियता का प्रमाण है। तुलसीदास के रामचरितमानस की वजह से रामलीला शुरू हुई। और आज राम का पात्र जिवंत है और रामायण लोकप्रिय हुआ। परंतु प्रश्न यह भी उठेगा कि तुलसीदास की रचना से उन बौद्धिस्ट और वामिस्ट समाज को फायदा क्या हुआ ? जो समाज में अच्छाई और लोकतंत्र को मिटाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहें। तुलसी की चौपाइयां हमें समझाती है –
होई है वही जो राम रचि राखा !
को करि तर्क बढ़ावे शाखा !!
अगर देखा जाए तो वामियों ने गोरखनाथ, कबीर, गुरु नानक, रविदास के प्रभाव को कम किया। यह सभी महान लोग कारीगर किसान मजदूर थे, जो मेहनत कर अपनी रोजी-रोटी कमाते, संसार की समस्याओं से जूझते, और परलोक की बातें ज्यादा नहीं करते, निठल्ले नहीं थे अपितु जागृत समाज के प्रहरी थे – सब नर करहि परस्पर प्रीति, के अनुयायी थे पर मुगल राम विरोधी थे, ऐतिहासिक तथ्यों को देखा जाए तो ऐसा ही लगता है । वामियों और वर्तमान बौद्धिस्टो को मुगलों का सपोर्ट था, ये ऐसे क्षुद्र हिंदु है जो सनातन संप्रदाय के बराबरी में इश्लाम को मजबूती से खड़ा करना चाहते है। इसलिए रामचरितमानस की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए और उसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए । अवध के राजाओं के समय में ही अयोध्या के मंदिर बने और रामलीला का मंचन शुरू हुआ तुलसीदास के अवधी भाषा में लिखे हुए सुंदरकांड के वजह से रामचरित मानस की लोकप्रियता बौद्ध और भीम से भी ज्यादा हो गई, जिससे जातिवादी सेक्यूलर बौखला गए और उसके बावजूद भी मंदिर भी खूब बने। आज राजनीति ने बाजी पलट दी ब्राह्मण विलेन बन गए, समाज को बाँटने वाले बताये जा रहें और कोई भी ऐरा गैरा मुंह उठाए मनु स्मृति और रामचरित मानस जला दें रहा। तो अब वक्त है भय बिनु होई ना प्रीति समझाने की। जिस बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया था वह मुग़ल सुल्तानों का जबरन बनवाया हुआ था और अंग्रेजो के आने के पहले ही तामीर हो चुका था उन्हीं सुल्तानों का बनवाया हुआ अटाला देवी मंदिर को तोड़कर बनवाया अटाला मस्जिद जौनपुर में अभी भी है जिसपर केस चल रहा, और उसकी भी स्थापत्य कला ठीक बाबरी मस्जिद जैसी है। तत्कालीन बौद्धिस्ट और वामियों ने फैजाबाद की जामा मस्जिद को 1853 के आसपास बाबरी मस्जिद कहना शुरू किया हिंदू मुस्लिम विद्वेष के बीज इन्होनें ही बोये । यह इनका राजनीतिक रूप था, जिसके भरोसे वह अपनी हुकुमत कायम करना चाहते थे। उस दौर में अलेक्जेंडर कनिंघम जैसे धन लोलुप और चापलूस अंग्रेज भी थे जिन्होंने हमारा परिचय पुरातात्विक रूप से बुद्ध और अशोक से करवाया । बनारस के एक अंग्रेज ने तो बाबा तुलसीदास के अभिलेख पढ़ कर हमें बताया कि सनातन कैसा था ? उसने कहा कि तुलसीदास ने
रामचरितमानस में लिखा है –
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।
सबमें राम का स्वरूप देखने वाले और सबसे प्रीति करने वाले केवल सनातन में ही मिलते है। गुरु ग्रंथ साहिब में इन सभी संतो के पद मिलते हैं परंतु गुरु रामदास से लेकर गुरु गोविंद सिंह तक सभी ने तुलसीदास को सम्मान के लायक समझा। जाहिर है उनकी दृष्टि समझ स्पष्ट थी कि तुलसीदास समाज को प्रेम और आदर्श की ओर ले जाएंगे। तुलसी दलित/शूद्र विरोधी थे ऐसा फर्जी नरेटिव बनाया गया, पर तुलसीदास तो मुस्लिम विरोधी भी नहीं थे। तुलसी ने कर्म और भक्ति भाव को बढ़ावा दिया। जबकि बौद्धिस्टो नें लोगों को भाग्यवादी और जीवन संघर्ष के प्रति उदासीन, पलायन वादी , नफरत वादी बनाया। हिंदी बेल्ट में गाय, गोबर, जातिवाद अभी भी विवादों में चल रहा है। तुलसी जैसा कामयाब कवि, ढूंढे मिलना मुश्किल है।

पंकज सीबी मिश्रा, राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार, जौनपुर यूपी