देश में इन दिनों राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होने का उत्सव मनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 7 नवंबर को दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में शामिल होंगे, जहाँ देशभर के 150 ऐतिहासिक स्थलों पर सामूहिक रूप से ‘वंदे मातरम’ गाया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय के अनुसार, इस अवसर पर एक स्मारक डाक टिकट, सिक्का, प्रदर्शनी और वृत्तचित्र भी जारी किया जाएगा। भाजपा ने इसे “भारत की आत्मा का उत्सव” बताया है, जबकि प्रधानमंत्री स्वयं इसे “मां भारती को नमन का पर्व” कह चुके हैं।
देखा जाये तो यह संयोग नहीं, बल्कि विडंबना है कि जब प्रधानमंत्री दिल्ली में भारत माता के सम्मान में ‘वंदे मातरम’ का जयघोष करने वाले हैं, उसी समय कश्मीर में कुछ धार्मिक संगठन इस गीत से भयभीत दिखाई दे रहे हैं। यह भय श्रद्धा का नहीं, बल्कि संकीर्णता का उत्पाद है। यह विरोध धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि राजनीतिक मानसिकता का प्रतीक है, वह मानसिकता जो सात दशकों बाद भी राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने से हिचकती है।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब 1875 में ‘वंदे मातरम’ लिखा था, तब यह सिर्फ एक कविता नहीं थी, यह पराधीन भारत की आत्मा की पुकार थी। स्वाधीनता संग्राम के हर मोर्चे पर यह गीत भारतवासियों के होंठों पर था। “वंदे मातरम” कहते हुए असंख्य क्रांतिकारी फाँसी के फंदे पर झूल गए। इस गीत में कोई धर्म नहीं, केवल मातृभूमि के प्रति श्रद्धा है। माँ केवल एक प्रतीक है— भूमि, संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक। इस गीत को 1950 में राष्ट्रीय गीत का दर्जा इसलिए मिला क्योंकि यह किसी मजहब का नहीं, बल्कि भारत का है।
लेकिन मुत्तहिदा मजलिस-ए-उलेमा का यह कहना कि वंदे मातरम इस्लामी मान्यताओं के विरुद्ध है, दो प्रश्न खड़े करता है। पहला, क्या देशभक्ति अब धार्मिक फिल्टर से होकर गुजरेगी? और दूसरा, क्या हर राष्ट्रीय प्रतीक को इस्लाम, हिंदू या किसी अन्य मजहब के चश्मे से देखा जाएगा? यदि “मातृभूमि की वंदना” भी किसी के लिए आस्था-विरोधी है, तो समस्या गीत में नहीं, मानसिकता में है। देश में करोड़ों मुसलमान हैं जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, वंदे मातरम गाया, तिरंगे में लिपटकर शहीद हुए। उनमें से किसी ने अपनी आस्था को इस गीत से खतरा नहीं माना। फिर आज कुछ स्वयंभू “धर्मरक्षक” इस विरोध का झंडा क्यों उठा रहे हैं? क्योंकि यह विरोध केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक है, यह “अलगाव” के एजेंडे को हवा देने का प्रयास है, जो कश्मीर की शांति और एकता के विरुद्ध है।
देखा जाये तो भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देता है। परंतु यह स्वतंत्रता राष्ट्रविरोध या राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान की स्वतंत्रता नहीं है। जब कोई संगठन कहता है कि वंदे मातरम गाना “गैर-इस्लामी” है, तो वह परोक्ष रूप से यह कह रहा होता है कि मातृभूमि के प्रति समर्पण का कोई धार्मिक आधार नहीं होना चाहिए। पर भारत में धर्म से ऊपर देश है और देश की एकता का सम्मान करना हर नागरिक का संवैधानिक कर्तव्य है। वंदे मातरम के विरोध में दी गई दलीलें न केवल तार्किक रूप से खोखली हैं, बल्कि राजनीतिक रूप से प्रेरित भी लगती हैं। यह वही मानसिकता है जो तिरंगे में रंग ढूंढ़ती है, राष्ट्रगान में ‘धर्म’ ढूंढ़ती है और अब वंदे मातरम में “मजहबी खतरा” खोज रही है।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने के समारोह का नेतृत्व कर रहे हैं, तो यह देश के लिए एक प्रतीकात्मक संदेश है कि राष्ट्रगौरव किसी पार्टी का नहीं, सबका है। कश्मीर के धार्मिक नेताओं को यह समझना चाहिए कि वंदे मातरम भारत की एकता का सूत्रधार है। कश्मीर वह भूमि है जहाँ ललदेद और शेख नूरुद्दीन जैसे संतों ने मिलजुलकर मानवीयता का संदेश दिया। यदि आज वहीं से राष्ट्रगीत के विरोध की आवाज़ उठती है, तो यह उस गंगा-जमनी परंपरा के लिए भी अपमान है।
बहरहाल, वंदे मातरम किसी एक धर्म का गीत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का स्वर है। इससे परहेज़ करने वाले स्वयं को देश से अलग-थलग कर रहे हैं। यह गीत “जय” का प्रतीक है, “विरोध” का नहीं। जो लोग इस पर आपत्ति करते हैं, वह दरअसल यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके भीतर अब भी राष्ट्र से दूरी का बीज जिंदा है। पर सच यह है कि भारत में अब वंदे मातरम का विरोध नहीं, उसका उद्घोष ही चलेगा।
