अतीक अहमद की तरह छांगुर भी जमीनों पर कब्जा करने में शामिल हो गया, लेकिन उसका तरीका अलग था। वह सीधे टकराव के बजाय प्रभाव, डर और कागज़ी चालों का इस्तेमाल करता था। इस तरह छांगुर बाबा धीरे-धीरे एक ऐसा चेहरा बन गया, जो बाहर से सूफी संत और भीतर से राजनीतिक और सामाजिक सत्ता का खिलाड़ी था और इस बदलाव की जड़ें कहीं न कहीं अतीक अहमद के साथ बने उसके संबंधों में ही छिपी थीं।
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद और पूर्व राज्यमंत्री दद्दन प्रसाद मिश्रा ने छांगुर बाबा उर्फ जलालुद्दीन को लेकर एक नया खुलासा किया है। उन्होंने बताया, ‘जब मैंने मीडिया रिपोर्ट्स और अखबारों में जलालुद्दीन उर्फ छांगुर बाबा की तस्वीर देखी तो मुझे याद आया कि जब साल 2014 में मैं लोकसभा चुनाव लड़ रहा था और हमारे सामने समाजवादी पार्टी से अतीक अहमद चुनाव में खड़ा था। तो उस दौरान छांगुर बाबा भी अतीक का चुनाव प्रचार करने के लिए मुस्लिम बहुल इलाकों में उसके साथ मंच साझा करता हुआ दिखाई दिया था। हालांकि छांगुर बाबा का गांव रेहरा ये विधानसभा उतरौला और लोकसभा क्षेत्र गोंडा में पड़ता है लेकिन वो अपने चुनावी क्षेत्रों में प्रचार न करके माफिया अतीक अहमद के चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रहा था।’
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान, जब कुख्यात माफिया अतीक अहमद समाजवादी पार्टी के टिकट पर श्रावस्ती सीट से चुनाव लड़ रहा था, तभी उसकी नजदीकी छांगुर बाबा से तेज़ी से बढ़ने लगी। छांगुर की कोठी श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र की सीमा के पास गोंडा के उतरौला विधानसभा सीट में स्थित थी, और चुनाव के दौरान वह अतीक अहमद के लिए पूरी तरह सक्रिय नजर आया। दद्दन मिश्रा, जो उस क्षेत्र की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, का दावा है कि छांगुर बाबा ने हर संभव तरीके से अतीक की मदद की चाहे वह जनसंपर्क हो, जनसभाएं हों या स्थानीय स्तर पर समर्थन जुटाना। चुनाव अभियान के दौरान छांगुर बाबा लगातार अतीक अहमद के साथ मौजूद रहा, जिससे यह साफ होता है कि दोनों के बीच राजनीतिक गठजोड़ के साथ-साथ निजी समीकरण भी मजबूत हो रहे थे। यह गठजोड़ आगे चलकर कई विवादों और सवालों की जड़ बन गया, जिसका असर दोनों की छवि और गतिविधियों पर स्पष्ट रूप से देखा गया।
अतीक अहमद और छांगुर बाबा की नजदीकी का एक रोचक और नाटकीय किस्सा 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान सामने आया था। यह घटना बलरामपुर कलेक्ट्रेट में अतीक के नामांकन के दिन घटी, जिसे आज भी लोग दिलचस्पी से याद करते हैं। दद्दन मिश्र के मुताबिक, अतीक अहमद ने चुनावी नामांकन के लिए जिस घोड़े पर सवार होकर कलेक्ट्रेट तक का रास्ता तय किया, वह घोड़ा किसी और का नहीं बल्कि छांगुर बाबा का था। छांगुर ने अपना खास घोड़ा अतीक को दिया था, जो उस समय सत्ता के प्रदर्शन और राजनीतिक स्टाइल का प्रतीक बन गया। नामांकन के दिन, जब अतीक बलरामपुर नगर की ओर से घोड़े पर सवार होकर कलेक्ट्रेट की ओर बढ़ रहा था, तभी उसने बीजेपी समर्थकों की भीड़ की ओर घोड़े को मोड़ दिया। यह सीन वहां मौजूद हर शख्स के लिए चौंकाने वाला था।
छांगुर बाबा ने श्रावस्ती और बलरामपुर के मुस्लिम बहुल इलाकों में अतीक अहमद का प्रचार करते हुए अतीक के साथ खुली जीप में रैलियां कीं। वह इस अंदाज़ में साथ चलता था जैसे वह अतीक का सबसे भरोसेमंद और करीबी सिपहसालार हो। स्थानीय ग्रामीण आज भी उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 2014 का चुनाव वह मोड़ था, जब छांगुर बाबा पूरी तरह से अतीक अहमद के प्रभाव में आ गया। चुनाव के बाद भी दोनों के बीच की नजदीकी और मेलजोल लगातार बढ़ता गया। अतीक के मारे जाने से पहले, छांगुर बाबा कई बार प्रयागराज गया था — और यही यात्राएं उनके रिश्ते को और गहरा करती गईं। आरोप है कि अतीक अहमद के गुर्गों ने न सिर्फ उसे संरक्षण दिया, बल्कि जब छांगुर को मुंबई जाना था, तो उन्होंने ही उसकी मुंबई की ट्रेन पकड़ने में मदद की। यही वह टर्निंग पॉइंट माना जाता है, जब कभी सड़कों पर मामूली नग (रत्न) बेचने वाला छांगुर अचानक करोड़ों में खेलने वाला शख्स बन गया।