राजनीति का एक उसूल , धंधा है सब धंधा है ये ..!

पंकज कुमार मिश्रा मीडिया पैनलिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर
लोकसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बयानों के कुछ अंशों को  लोक सभा के अध्यक्ष ने उन्हें असंसदीय मानते हुए उन्हें रिकॉर्ड से हटाए जाने को लेकर छिड़ा विवाद अभी थमा भी नहीं था कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के बयान को भी असंसदीय मानते हुए राज्य सभा के अध्यक्ष ने भी रिकॉर्ड से हटा दिया है । खड़गे की 6 टिप्पणियों को अप्रमाणिक मानते हुए रिकॉर्ड से हटा दिया गया है! जिस पर घोर आपत्ति जताते हुए कांग्रेस नेता ने राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ को दो पृष्ठों को पत्र लिखा है। अपने पत्र में उन्होंने टू संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए अपने द्वारा की गई टिप्पणी असंसदीय बताने पर कड़ी आपत्ति जताई है। आइए, आपको बताते हैं कि कांग्रेस नेता ने अपने पत्र में क्या लिखा है । कांग्रेस नेता ने विभिन्न संवैधानिक मूल्यों का हवाला देकर अपने बयान को रिकॉर्ड से हटाए जाने के कदम को असंवैधानिक बताया है। खड़गे ने अपने पत्र में रूल 234A का हवाला देते हुए कहा कि सभापति संसद के किसी भी सदस्य द्वारा दिए गए बयान को तभी रिकॉर्ड से हटा सकते हैं, जब सभापति को लगे कि उसके द्वारा दिया गया बयान विवादित या अपमानजनक है! इसके अलावा कांग्रेस नेता ने रूल 238 में आरोप शब्द को परिभाषित किया गया है। इसमें बताया गया है कि संसदीय कार्यप्रणाली में उन बयानों और शब्दों को आरोपों की श्रेणी में डाला गया है, जो कि न्यायालय में लंबित हैं, या संसद के किसी सदस्य द्वारा किसी साथी सदस्य पर पारस्परिक वैमनस्यता के आधार पर निजी प्रहार करने के ध्येय से कोई बात कही जाती है, तभी उसे संसदीय कार्यप्रणाली में आरोपों के रूप में परिभाषित किया जाता है! खड़गे ने आगे संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए अभिव्यक्ति की आजादी को भी परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि संविधान के आर्टिकल 105 के तहत संसद के सभी सदस्यों को किसी भी मसले पर बोलने की संपूर्ण आजादी है। जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में भी परिभाषित किया जाता है।  कांग्रेस नेता ने आगे कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर सदन के किसी भी सदस्य द्वारा संसद के पटल पर रखी गई बातों को भी रिकॉर्ड से हटाने का प्रावधान है, ना की भाषण के दौरान कही गई किसी भी बात रिकॉर्ड से हटाने का प्रावधान संविधान में है।  लिहाजा उपरोक्त संवैधानिक प्रावधानों के अनरूप देखें तो संसद मेरे द्वारा कही गई कोई भी बात व्यक्तिगत आरोप लगाने से ध्येय से प्रेरित नहीं थी। राष्ट्रपति के संसद में अभिभाषण  देते हुए प्रधानमंत्री का यह कहना कि बहुमत मेरे साथ है कोई तर्क नहीं है वास्तविक सत्य है ।  अदानी को लेकर आरोपों के विरुद्ध भाजपा अब आंख। लोकतंत्र में बहुमत वाद का कोई स्थान नहीं है ।  चुनाव में अधिक वोट मिल जाने के बाद कोई व्यक्ति या दल सत्ता में आता है तो वह निरंकुश शासक नहीं बन सकता । देश में संविधान का शासन सदा रहता है और संविधान का अर्थ ही है कि हर व्यक्ति चाहे उसका विचार केवल अपना ही हो ,मात्र एक व्यक्ति का ही हो , उसको भी कुछ अधिकार होते हैं और उनको उससे नहीं छीना जा सकता । मीडिया को प्रचारतंत्र में बदलकर उसका अपने हित में इस्तेमाल करने का ये दूसरा केस है। इससे पहले ये काम हिटलर ने किया था। खैर अब सोचिए कि इस समय भारत वर्ष का मीडिया अगर फ्री होता तो क्या हो रहा होता?
देश को राहुल गांधी द्वारा बताया जा रहा  कि अडाणी घोटाला किस तरह हुआ, कहां कहां शेल कम्पनियां बनाई गईं, उनमें किस तरह से पैसा पहुंचा, कैसे वह अडाणी की कम्पनियों में निवेशित हुआ। देश को समझाया जा रहा कि कोरोना के उस दौर में  अडाणी की सम्पत्ति बहुत तेजी से क्यों बढ़ी, जब भारत की 90 फीसदी आबादी के सामने एक तरह से दाल रोटी का संकट था। देश को बताया जा रहा  कि अडाणी पर देश के किस बैंक का कितना कर्ज है, उसमें से कितना माफ किया गया है, कितना एनपीए हुआ है, कितना राइट ऑफ किया गया है, कितना अडाणी ने जमा किया है। बैंकों ने कब कब लोन की शर्तों को शिथिल करते हुए अडाणी को लोन दिया। देश को बताया जा रहा  कि अडाणी घोटाले से देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हुआ है, आगे कितना होगा, विदेशी निवेशकों का भरोसा किस प्रकार टूटा, और ग्लोबल अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेशकों का भरोसा टूटना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए किस तरह खतरनाक हो सकता है । इसीलिए लोकतंत्र में मीडिया को चिर विपक्ष की संज्ञा दी जाती है। फासीवादी शक्तियां सबसे पहले मीडिया को ही खत्म करती हैं।  लोकतंत्र शासन की एक ऐसी अंतरिम व्यवस्था है जो कुछ समय के लिए एक समूह को  औरों से कुछ अधिक अधिकार दे देती है। क्योंकि इस व्यवस्था से बेहतर अभी कोई व्यवस्था नहीं बनी है इसीलिए इस व्यवस्था को मानना पड़ता है।वरना लोकतंत्र कोई आदर्श व्यवस्था नहीं है। इसमें लोगों की राय निश्चित करने के लिए अधिकतम शक्ति उन लोगों के पास है जो अपने विचार को अधिकतम लोगों तक फैला सकते हैं और ऐसा भ्रम पैदा कर सकते हैं कि अधिकतर लोगों का विचार यही है। सच्चाई यह है की सबसे अधिक लोग जिस वर्ग में हैं अर्थात समाज के आर्थिक तौर पर निचले वर्ग के लोग उनके पास न समय होता है और न संसाधन कि वे अपने विचार ठीक से बना सके और उनका प्रचार कर सकें।यह लोकतंत्र की एक बहुत बड़ी कमी है परंतु इसे कैसे सुधारा जाए उसका कोई उत्तर आज तक नहीं मिला है। उत्तर की तलाश अवश्य जारी है परंतु तब तक बहुमत के विचार को सब लोगों पर जबरन लाद दिया जाए और अल्पमत को अपमानित किया जाए यह स्थिति अमान्य है।

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