व्यंग्य कविता – बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का 

लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार कानूनी लेखक चिंतक कवि एडवोकेट किशन सनमुख़दास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
टेबल पर दिन भर काम करता हूं
शासकीय कर्मचारी हूं जनता सेवा करता हूं
किसी को बताना मत हरे केसरी लेता हूं
बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का
मिनटों के काम को घंटो लगाता हूं
टेबल छोड़कर व्हाट्सएप पर बिजी रहता हूं
नहीं देने वालों को चकरे खिलाता हूं
बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का
ऊपर से हिस्सेदारी का डंडा खाता हूं
नहीं दिया तो ट्रांसफर की सज़ा पाता हूं
वसूली में मोटी मलाई खाता हूं
बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का
जनता कुछ नहीं करेगी पता रखता हूं
नीचे से ऊपर तक सेटिंग है जानता हूं
जनता को गाजर मूली समझता हूं
बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का
वोट की ताकत से मुझे फर्कनहीं पड़ता जानताहूं
टॉपअप को फर्क पड़ेगा पहचानता हूं
मुझे तो भ्रष्टाचार से मतलब है खाता हूं
बोल देता हूं गया ज़माना गुलाबी का

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